मुझे समझ नही आ रहा था कि बेटा और नई नवेली वाइफ़ ये कैसा बरताव कर रहे हैं ?
दोनों ही कंप्यूटर इंजीनियर थे ,सर्विस में भी । सवेरे निकल जाते साथ साथ , रात को ही वापस आते ।
यहाँ तक तो ठीक था ।
बचे शनिवार रविवार ! तो उठने का कोई समय नहीं , कभी नौ कभी साढे दस । उठ कर भी घर मे कोई खास दिलचस्पी नहीं ।
उठते ही लैपटॉप भी खुल जाते और ड्रॉइंग रूम में इयरफोन , पॉवर बैंक , चार्जर्स , अटैचमेंट्स के तारों का मकड़जाल फ़ैल जाता ।
दोनों के फ़ोन कॉल्स आने लगते .. ! मुझसे बस गर्दन के इशारो से ही बात होती । दोनों हाथ मे बड़े बड़े कॉफी मग लेकर स्क्रीन पर झुक जाते ।
दोनों एक ही थाली में खाने की जिद करते । सब के सामने एक दूसरे को निवाले खिलाते हँसी ठिठोली करते , हाथों में हाथ लिए ही रहते !
बेटा सोफे पर होता तो बहु उसके पास सट कर बैठ जाती और खुले आम बेटे के कंधे पर सर रख कर उसके मोबाइल या लैपटॉप मोबाइल में झाँकती ।
कभी भी उठ कर घर के बाहर चले जाते हैं , कभी खा कर आते हैं तो कभी पैक करवा लाते !
मेरे सामने ही बेहिचक एक दूसरे को अजीबो गरीब नामो से पुकारते , कोई लिहाज़ ही नही रखते !
मुझे अपने प्रोग्राम्स इन्फॉर्म भर करते हैं , परमिशन लेने का तो सवाल ही नही ।
ये सब मेरे दशकों से देखे हुए बेटा सास बहू के पुश्तैनी रिश्ते से टैली ही नही हो रहा था , मेरी भी कुछ अपेक्षाएं थीं जो पूरी होती नज़र ही नही आ रहीं !
क्या करूँ अब ?
पुराने समय को पकड़े बैठी रहूँ या चल पडूँ इन बच्चो के साथ उनके नए तौर तरिकों वाली बिंदास दुनिया मे …!
या कोई बीच का तीसरा रास्ता ढूंढने लगूँ ?
अपने सदियों पुराने बंद घर मे रास्ते निकलना और निकालना मुश्किल लग रहा मुझे ।
विरासत के स्टोर रूम में नई पीढ़ी जाने को तैयार ही नही ।
शायद वक़्त नया रंग रौग़न लगा कर रिश्तों नातों की नई परिभाषा लिख रहा था … ! दो तीन पीढ़ियों के बाद इन के लिए भी ये सब भी पुश्तैनी हो जाएगा दाख़िल हो जाएगा स्टोर रूम में ..!
एक दिन दोनों , घुस गए स्टोर रूम में !
लालटेन , ढिबरी , गैस बत्ती , पुराना रेडियो , उसका जाली वाला एंटीना , ग्रामोफ़ोन , रेकॉर्ड्स और ऐसी ही चीज़े निकाल लाये ।
सजा दिये चमका कर ड्रॉइंग रूम में और दे डाली पार्टी दोस्तो को… लालटेन ढिबरी की रौशनी में ।
मेरी आँखों के सामने से मेरी शादी के बाद के न जाने कितने दिन और रातें तैर गयीं .. उस शाम !
एक बात बताऊँ , मैंने भी एक घूँट ब्रीज़र पी उनके साथ .. सारे बच्चे ख़ुशी से नाच उठे । स्वाद भी अलग और नया सा लगा , मेरे लिए उतना ही काफ़ी था … अच्छा लगा मुझे वो सब !
पर मुझे तो अपना छाछ ही ज़्यादा अच्छा लगता है , बच्चे भी ख़ूब लाते हैं ये बटर मिल्क !
ठीक है । अब मैं भी एन्जॉय ही करूँगी बच्चो की ये नई ज़िन्दगी स्टाइल , मेरा आज ख़ुश तो .. कल भी ख़ुश , सब ख़ुश.!
यह कहानी मेरे पिताजी ने लिखी है— — — -निरंजन धुलेकर